ऐसा रे अवधू की वाणी, ऊपरि कूवटा तलि भरि पाँणीं॥टेक॥ जब लग गगन जोति नहीं पलटै, अबिनासा सुँ चित नहीं विहुटै। जब लग भँवर गुफा नहीं जानैं, तौ मेरा मन कैसै मानैं॥ जब लग त्रिकुटी संधि न जानैं, ससिहर कै घरि सूर न आनैं। जब लग नाभि कवल नहीं सोधै, तौ हीरै हीरा कैसै बेधैं॥ सोलह कला संपूरण छाजा, अनहद कै घरि बाजैं बाजा॥ सुषमन कै घरि भया अनंदा, उलटि कबल भेटे गोब्यंदा। मन पवन जब पर्या भया, क्यूँ नाले राँपी रस मइया। कहै कबीर घटि लेहु बिचारी, औघट घाट सींचि ले क्यारी॥
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मन का भ्रम मन ही थैं भागा, सहज रूप हरि खेलण लागा॥टेक॥ मैं तैं तैं ए द्वै नाहीं, आपै अकल सकल घट माँहीं। जब थैं इनमन उनमन जाँनाँ, तब रूप न रेष तहाँ ले बाँनाँ॥ तन मन मन तन एक समाँनाँ, इन अनभै माहै मनमाँना॥ आतमलीन अषंडित रामाँ, कहै कबीर हरि माँहि समाँनाँ॥
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आत्माँ अनंदी जोगी, पीवै महारस अंमृत भोगी॥टेक॥ ब्रह्म अगनि काया परजारी, अजपा जाप जनमनी तारी॥ त्रिकुट कोट मैं आसण माँड़ै, सहज समाधि विषै सब छाँड़ै॥ त्रिवेणी बिभूति करै मन मंजन, जन कबीर प्रभु अलष निरंजन॥
4)
या जोगिया को जुगति जु बूझै, राम रमै ताकौ त्रिभुवन सूझै॥टेक॥ प्रकट कंथा गुप्त अधारी, तामैं मूरति जीवनि प्यारी। है प्रभू नेरै खोजै दूरि, ज्ञाँन गुफा में सींगी पूरि॥ अमर बेलि जो छिन छिन पीवै, कहै कबीर सो जुगि जुगि जीवै॥
5)
सो जोगी जाकै मन मैं मुद्रा, रात दिवस न करई निद्रा॥टेक॥ मन मैं आँसण मन मैं रहणाँ, मन का जप तप मन सूँ कहणाँ॥ मन मैं षपरा मन मैं सींगी, अनहद बेन बजावै रंगी। पंच परजारि भसम करि भूका, कहै कबीर सौ लहसै लंका॥
6)
बाबा जोगी एक अकेला, जाके तीर्थ ब्रत न मेला॥टेक॥ झोलीपुत्र बिभूति न बटवा, अनहद बेन बजावै॥ माँगि न खाइ न भूखा सोवै, घर अँगना फिरि आवै॥ पाँच जना का जमाति चलावै, तास गुरु मैं चेला॥ कहै कबीर उनि देस सिधाय, बहुरि न इहि जगि मेला॥
7)
जोगिया तन कौ जंत्रा बजाइ, ज्यूँ तेरा आवागमन मिटाइ॥टेक॥ तत करि ताँति धर्म करि डाँड़ि, सत की सारि लगाइ। मन करि निहचल आसँण निहचल, रसनाँ रस उपजाइ॥ चित करि बटवा तुचा मेषली, भसमै भसम चढ़ाइ। तजि पाषंड पाँच करि निग्रह, खोजि परम पद राइ॥ हिरदै सींगी ग्याँन गुणि बाँधौ, खोजि निरंजन साँचा। कहै कबीर निरंजन की गति, जुगति बिनाँ प्यंड काचा॥
8)
अवधू ऐसा ज्ञाँन बिचारी, ज्यूँ बहुरि न ह्नै संसारी॥टेक॥ च्यँत न सोच चित बिन चितवैं, बिन मनसा मन होई। अजपा जपत सुंनि अभिअंतरि, यहू तत जानैं सोई॥ कहै कबीर स्वाद जब पाया, बंक नालि रस खाया। अमृत झरै ब्रह्म परकासैं तब ही मिलै राम राया॥
9)
गोब्यंदे तुम्हारै बन कंदलि, मेरो मन अहेरा खेलै। बपु बाड़ी अनगु मृग, रचिहीं रचि मेलैं॥टेक॥ चित तरउवा पवन षेदा, सहज मूल बाँधा। ध्याँन धनक जोग करम, ग्याँन बाँन साँधा॥ षट चक्र कँवल बेधा, जारि उजारा कीन्हाँ। काम क्रोध लोभ मोह, हाकि स्यावज दीन्हाँ॥ गगन मंडल रोकि बारा, तहाँ दिवस न राती। कहै कबीर छाँड़ि चले, बिछुरे सब साथी॥
10 साधन कंचू हरि न उतारै, अनभै ह्नै तौ अर्थ बिचारै॥टेक॥ बाँणी सुंरग सोधि करि आणै आणौं नौ रँग धागा। चंद सूर एकंतरि कीया, सीवत बहु दिन लागा। पंच पदार्थ छोड़ि समाँनाँ, हीरै मोती जड़िया। कोटि बरष लूँ क्यूँ सीयाँ, सुर नर धधैं पड़या॥ निस बासुर जे सोबै नाहीं, ता नरि काल न खाई। कहै कबीर गुर परसादैं सहजै रह्या समाई॥
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