अन्य काव्य | Kabir Miscellaneous Poetry

प्रभु की भक्ति और उनके नाम का भजन (जप) यही वस्तुत: सार है और सब बातें अपार दु:ख हैं। - कबीर

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अन्य काव्य

अन्य कबीर काव्य में कबीर की साखी, पद, ग़ज़ल और रमैनी संग्रहीत हैं। कबीर की काव्य-भाषा सामान्य बोल-चाल की सधुक्कडी ब्रजभाषा है जिसमें पूरवी का पुट है। कबीर काव्य में प्रेम की पीर तथा उच्चतम तत्व दर्शन सहित सहज कवित्वमयता भी है। कबीर अपनी सहजता और अद्भुत कला के लिए जाने जाते हैं। कबीर काव्य का आधार यथार्थ है।

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पद - राग आसावरी (1-10) - कबीरदास

ऐसा रे अवधू की वाणी, ऊपरि कूवटा तलि भरि पाँणीं॥टेक॥
जब लग गगन जोति नहीं पलटै, अबिनासा सुँ चित नहीं विहुटै।
जब लग भँवर गुफा नहीं जानैं, तौ मेरा मन कैसै मानैं॥
जब लग त्रिकुटी संधि न जानैं, ससिहर कै घरि सूर न आनैं।
जब लग नाभि कवल नहीं सोधै, तौ हीरै हीरा कैसै बेधैं॥
सोलह कला संपूरण छाजा, अनहद कै घरि बाजैं बाजा॥
सुषमन कै घरि भया अनंदा, उलटि कबल भेटे गोब्यंदा।
मन पवन जब पर्‌या भया, क्यूँ नाले राँपी रस मइया।
कहै कबीर घटि लेहु बिचारी, औघट घाट सींचि ले क्यारी॥
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कबीर भजन - कबीरदास

यह पृष्ठ कबीर भजन को समर्पित है। यहाँ कबीर भजनों को संग्रहीत किया गया है।  इस भजन संकलन में आप कबीर के विभिन्न भजन पढ़ पाएंगे।
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ऋतु फागुन नियरानी हो - कबीरदास

ऋतु फागुन नियरानी हो,
कोई पिया से मिलावे ।

सोई सुदंर जाकों पिया को ध्यान है,  
सोई पिया की मनमानी,

खेलत फाग अगं नहिं मोड़े,

सतगुरु से लिपटानी ।

इक इक सखियाँ खेल घर पहुँची,
इक इक कुल अरुझानी ।

इक इक नाम बिना बहकानी,
हो रही ऐंचातानी ।।

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कबीर वाणी  - कबीरदास

माला फेरत जुग गया फिरा ना मन का फेर
कर का मनका छोड़ दे मन का मन का फेर
मन का मनका फेर ध्रुव ने फेरी माला
धरे चतुरभुज रूप मिला हरि मुरली वाला
कहते दास कबीर माला प्रलाद ने फेरी
धर नरसिंह का रूप बचाया अपना चेरो

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कबीर की हिंदी ग़ज़ल - कबीरदास

क्या कबीर हिंदी के पहले ग़ज़लकार थे? यदि कबीर की निम्न रचना को देखें तो कबीर ने निसंदेह ग़ज़ल कही है:
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कबीर की कुंडलियां - कबीरदास

माला फेरत जुग गया फिरा ना मन का फेर
कर का मनका छोड़ दे मन का मन का फेर
मन का मनका फेर ध्रुव ने फेरी माला
धरे चतुरभुज रूप मिला हरि मुरली वाला
कहते दास कबीर माला प्रलाद ने फेरी
धर नरसिंह का रूप बचाया अपना चेरो

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आया है किस काम को किया कौन सा काम
भूल गए भगवान को कमा रहे धनधाम
कमा रहे धनधाम रोज उठ करत लबारी
झूठ कपट कर जोड़ बने तुम माया धारी
कहते दास कबीर साहब की सुरत बिसारी
मालिक के दरबार मिलै तुमको दुख भारी

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